परावर्तन
रमेश जैन
अब नहीं पसीजता मन
किसी के रोने पर
क्यों मुट्ठियां नहीं कसती
किसी पर होता अत्याचार देखकर
क्यों नहीं किटकिटाते दांत
पीठ पर बरसते कोडे देखकर
क्यों गुस्सा नहीं आता
किसी के तिलमिलाने पर
जब मैं पीछे मुडकर
असमीपस्थ काली दुर्गम घाटी देखता हूं
तब मुझे सहसा/बीता हुआ याद आता है
मैं 'मैं' नहीं/कोई अन्य था वहां
जिसे देखते ही कंदरा से किरणें फूट पडती थी
आज जब खुरदरे हाथों से
अपने झुर्रीदार चेहरे को छू भर देने से
सिरहन हो उठती है
और मैं टूटे पत्ते की तरह खड्खडा कर
गहन गह्वर में जा गिरता हूं
तब मुझे लगता है
मैं जीवन का अनन्तर वनवास भुगतता
हृदय की निष्ठुरता ढोता
इस पडाव पर ठहर सा गया हूं
अपराधिनी हताशा/आजीवन कारावास भोगती
बिलखती आज खडी हुई है
और मुझे झकझोरती/अतीत की याद दिलाती
चुपचाप आगे बढ जाने का
संकेत चिन्ह दिखाती चीख रही है
मुझ में आया यह बदलाव
ॠतुओं का परावर्तन तो नहीं !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सपरिवार होली की मंगलकामनाएँ!
गहन अभिव्यक्ति आपको सपरिवार होली की मंगलकामनाएँ!
ReplyDeleteअब नहीं पसीजता मन
ReplyDeleteकिसी के रोने पर
क्यों मुट्ठियां नहीं कसती
किसी पर होता अत्याचार देखकर
क्यों नहीं किटकिटाते दांत
पीठ पर बरसते कोडे देखकर
क्यों गुस्सा नहीं आता
किसी के तिलमिलाने पर
______________________
बढिया
अंतर्मन को झकझोर देने वाली रचना है!
ReplyDeleteachchhee prastuti.
ReplyDeleteImmune ho gaye hain aaj kal sabhi..
aur ignore karne kii aadat bhi jo padhne lagi hai!
[Word verification hatayen please..]