Monday, December 21, 2015

पृथ्वीराज अरोड़ा स्मृति शेष

  • उनकी याद में उनकी बेहतरीन लघुकथाएँ 


दया

दसवीं क्लास का हिंदी का  अध्यापक ,जो अपने सादे रहन –सहन,उच्च आचरण और दयाभाव के 

लिए स्कूल भर में विख्यात था,नई क्लास को सम्बोधित कर रहा था,जीवन में सादे रहन सहन

 और उच्च-आचरण से दयाभाव का महत्व कहीं ज्यादा है। असल में जिसमे दयाभाव नहीं है,वह

आदमी कहलाने का हकदार नहीं है।

राजकुमार गौतम एक दिन घूमते हुए दूर तक निकल गए।एक जगह एक मछुआरा मछलियों को

जाल में फांसकरकिनारे पर रखे बर्तन में फेंक रहा था। राजकुमार कुछ पल  मछुआरे द्वारा पकडी

 गई मछलियों को,जो पानी में तडपरही थी,देखते रहे,फिर मछुआरे से पूछा,इन मछ्लियों का क्या

 करोगे ?

मछुआरे ने जवाब दिया, ‘बाज़ार में बेचूंगा ।

कितने रुपये की बिक जाएगी ?

यही कोई चार पांच रुपये की।

राजकुमार ने अपनी सोने की अंगूठी मछुआरे को देकर सारी मछलियां ले ली और उन्हें दोबारा

  पानी में फेंक दिया । राजकुमार के दयाभाव से हमें सीख लेनी चाहिये ।











                 रक्षा
लक्ष्मी बहन, मैं रक्षाबंधन के त्यौहार पर तुम्हारे पास नही पहुँच सका जबकि हर वर्ष पहुँचता था।

 तुम्हें तकलीफ हुई होगी, मैं भली भांति समझता हूं। हमारे रीति रिवाज हमारी संस्कृति के अंग हैं

 और हम इन्हें बिना किसी संकोच के साथ निभाते आ रहे हैं।

      बहन, मैने  पिछले वर्ष ही पढाई छोडी हैं।मैं एक विद्यार्थी- भर ही रहा। मैं तुमसे राखी

बंधवाता रहा और तुम्हारी रक्षा की जिम्मेदारी को दोहराता रहा। माँ- बाप द्वारा दिये गए उपहार तुम

 तक पहुँचाता रहा । पढाई खत्म होने के बाद मैने नौकरी की तलाश मे भटकना शुरू े कर दिया।

एक रोजगार प्राप्त अपने सहपाठी के साथ रहा हूँ। माँ- बाप को झूठ-मूठ की तसल्ली देता रहा हूँ।

कि नौकरी तो मिल गई है परन्तु तन्ख्वाह थोडी हैं और अपना गुजर मुश्किल से कर रहा हूँ। अतः

 फिलहाल कुछ भेज नही पाऊंगा। असल मे नौकरी मिलने की संभावना दूर-दूर तक नही हैं।घर की

 स्थिति के बारे में तुम जानती ही हो काम धन्धे के लिए माँ-बाप के पास रुपये नही हैं। हालांकि

 मुझे व्यवसाय करने में कोई संकोच नही हैं।

            मेरी प्यारी बहना तुम्हें आरक्षण कोटे में नौकरी मिल गई थी। जीजा जी भी नौकरी

 में हैं।दोनो अच्छा कमा लेते हो। हां, जो मैं कहने जा रहा हूँ।वह कुछ अटपटा लग सकता हैं।हमारी

 परम्परा में जहां तक में समझता हूँ, बहन की रक्षा की बात तब उठी होगी, जब वह किसी ना

 किसी रूप में आश्रित रही होगी पर, आज तो नहीं।आज के युग में रक्षा को केवल शारीरिक क्षमता

 से नही जोडा जाता । पैसे के बल पर सब कुछ संभव हैं, है न बहन । या तो सरकार पहले पुरूषो

को रोजगार दे या फिर धर्म-गुरू रक्षा के दायित्व को उठा सकने वाले पर डाल दें।

      बहन, मुझे तुम्हारे पत्र का इंतजार रहेगा। परन्तु जल्दी नही हैं। तुम जीजा जी से , अपने

 संस्थान के  सहयोगियो से , किसी पत्र/पत्रिका के सम्पादक से,किसी राज  नेता से , किसी धर्म गुरू

 से मशविरा करके बताना- क्या यह संभव हो सकेगा?

                                                      तुम्हारा भाई- निर्विभव








Saturday, June 20, 2015

लघुकथा का रचना विधान

लघुकथा का रचना विधान

भगीरथ

जिन्हें व्यंग्य एवं लघुकथा का फर्क मालूम नहीं है उन्हें परसाई की लघुकथाएं और व्यंग्य रचनाओं को साथ - साथ रख कर पढ़ना चाहिए।
अव्यवसायिक क्षेत्रों में यथार्थ के साथ व्यंग्य थालेकिन जब हम किसी विधा का अंक प्रकाशित कर रहे हो तो इतना तो ध्यान रखा जाना चाहिए व विधा की समग्र तस्वीर प्रस्तुत करें ।
लेकिन रमेश बत्रा के संपादन में साहित्य निर्भर तारिका लघुकथांकों ने लघुकथा को ईमानदारी से पेश किया यह पहली बार था कि लघुकथा को साहित्य जगत में लघुकथा जहां तक लोक, बोध, नीति और उपदेश तक सीमित रहती है उसका कलेवर, उसकी भाषा और शैली भी बहुत हद तक कथ्य की उद्देश्यपरकता से प्रभावित होती है उसमें कथा- क्रम रोचक होता है और अंत में पूरी कहानी के कथ्य को नीति वाक्य में निचोड़ कर कह दिया जाता है।
पंचतन्त्रीय कथाओं का उद्देश्य जीव - जन्तुओं की प्रकृति एवं मनुष्य के चारित्रिक लक्षणों में साम्यता स्थापित कर , कुछ उपदेशात्मक बातें या व्यवहारिक सीख देने का रहा है। इन कथाओं के रचनात्मक विधान में प्रतीकात्मक व प्रक्षेपणात्मक शैली का प्रयोग हुआ है और इसलिए ही ये साहित्य की अद्वितीय रचनाएं सिद्ध हुई है।
वर्तमान में जीवन की परिस्थतियों एवं मानवीय संबधों की जटिलता की वजह से नीतिकथाएं, जो परिस्थतियों और मानवीय संबंधों के द्वंद्व का अति सरलीकृत एंव फार्मूलाबद्ध रूप है अब अप्रासांगिक हो गई है।
नीतिकथाओं में कथोपकथन शैली का भी व्यापक प्रयोग हुआ है  जिसे रचना की उद्देश्यपरकता के परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर रचना में व्यवस्थित किया जाता है।
जिब्रान की रूपक कथाओं की भाषा शैली में प्रतीकात्मकता ओर व्यजंनात्मकता  की शक्ति के कारण वे साहित्य में अद्वितीय रचनाएं सिद्ध हुई है उनके कथ्य शाश्वत है और इसी कारण अमूर्त एवं रहस्यवादी बन गई है रचनाएं ।
हिन्दी की प्रारम्भिक लघुकथाओं में शैली के स्तर पर या कथ्य के स्तर पर कोई नई जमीन नहीं तोड़ी गई चाहे रचनाकार जगदीशचन्द्र मिश्र रहे हो या रावी ।
लेकिन आठवें दशक के आते - आते लघुकथा अभिव्यक्ति की विवशता के रूप में प्रस्फुटित हुई। क्योंकि जीवन  का तल्ख यथार्थ अभिव्यक्ति चाहता था। अतः आठवें दशक की लघुकथा यथार्थ की जमीन पर खड़ी दिखी । कथ्य की विविधता ने लघुकथा में नई जमीन तोड़ी और शैली के स्तर पर व्यापक प्रयोग हुए भाषा गठन में भी बदलाव आया। क्योंकि अब लघुकथाकार का उद्देश्य साम्प्रतिक जीवन के यथार्थ को कथा में प्रस्तुत करता था न कि कोई उपदेश या दृष्टांत देना था।
लघुकथा का पूरा आन्दोलन अव्यवसायिक पत्रिकाओं और नये रचनाकारों ने चलाया व्यवसायिक जगत में लघुकथा की कोई पहचान नहीं थी । कालान्तर में व्यवसायिक जगत ने इस आन्दोलन के परचम को थामने की कोशिश की लेकिन उसमें उन्हें मामूली सफलता ही मिली सारिका के लघुकथांक और श्रेष्ठ लघुकथाएं, एंव समान्तर लघुकथाओं के प्रकाशन ने यह साबित किया कि व्यवसायिक जगत केवल लघुकथा के नाम पर व्यंग्य लघुकथा या व्यंग्य रचनाओं से ही वाकिफ है। और आठवें दशक में लघुकथा जो तस्वीर अव्ययवसायिक पत्रिकाएं प्रस्तुत कर रही थीं उनका कोई उल्लेख उनमें नहीं था इस कारण भी लघुकथांक व पुस्तकों में व्यंग्य लेखकों को ही स्थान मिला ।
हरशिंकर परसाई ने व्यंग्य लघुकथाएं भी लिखी है और उनका अधिकतर लेखन व्यंग्य रचनाओं के नाम से जाना जाता है जिसमें कथातत्व की प्रमुखता न हो कर भाषा  व्यञ्जकता    और शैली की व्यंग्यात्मकता है। हरिशंकर परसाई के लिए व्यंग्य  कोई हास्य की वस्तु नहीं है हालांकि उपहास उन्होंने जरूर उडाया है जिन्हें व्यंग्यरचनाएं ठीक से प्रस्तुत किया गया उसके बाद तो लघुकथांकों  की अच्छी परम्परा है।
व्यवसायिक क्षेत्रों में व्यंग्य कथा के अन्तर्गत पैरोडी कथाओं का भी व्यापक प्रयोग हुआ लेकिन एक सीमा के बाद वे निरर्थक साबित होने लगी क्योंकि उनमें पौराणिक कथाओं के निष्कर्षो पर आधुनिक पात्र थोपे गये मूल्यों में आए पतन को दर्शाने की इन लघुकथाओं ने कोशिश अवश्य की लेकिन अपेक्षाकृत सरलीकृत तरीके से ये लघुकथाएं लिखी गई अतः प्रकान्तर में वे अनुपयोगी होकर रह गई।
घटना कथा व व्यथा कथा के नाम से व्यवसायिक क्षेत्रों में लघुकथा लिखी जाने लगी जो केवल घटना की रिपोर्टिंग होती थी। उसमें लघुकथा के रूप विन्यास पर कोई मेहनत नहीं होती थी भाषा भी पूर्ण अखबारी होती थी यथार्थ तो था लेकिन ललित    साहित्य नहीं।
लगातार तनाव की स्थिति को  भोगती रचनाएं  क्लाइमेक्स से आरम्भ हो - उसी स्तर पर यात्रा कर  वहीं समाप्त हो जाती है ऐसी लघुकथाएं पाठक को पकड़े रहने में सक्षम होती है ।
कभी - कभी लघुकथा तेजी से चरमोत्कर्ष की ओर दौड़ती हे और अप्रत्याशित ही समाप्त हो जाती है। यहां पाठक स्तम्भित, भौंचक, सम्मोहित या चौंक पड़ता है। ऐसी रचनाएं लघुकथा में काफी सफल होती है क्योंकि इनका कथ्य धारदार और उसका प्रकटीकरण भी उतना ही सशक्त।
प्रभावी डायलाॅग के रूप में लिखी रचनाएं, एक स्थिति को प्रकट करती है। जिसमें कथोपकथन के जरिए ही कथा का विकास व पात्रों के भावों की अभिव्यक्ति होती है। रमेश बतरा की माएं और बच्चे सिमिर की हथकंडे कृष्णा अग्निहोत्री की मातम ऐसी ही रचनाएं है।
मशकूर जावेद ने अपनी रचना केबरे व इस लेखक की रचना हड़ताल में वाक्यों के अभाव और शब्दों के मोजेक वर्क से लघुकथा का कम्पोजीशन उभारा है। आयातित संस्कृति के खोखलेपन एवं सेक्स के व्यवसायीकरण को उजागर करने लूटमार सभ्यता की पथराई आत्मा - जो वस्तुओं में अपनी संतुष्टि खोजकर समूची मानव जाति से आंखे मूंद अपने जीवन की इतिश्री समझ लेते है- ऐसे कथ्य को इस शैली के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति दी है ।
      गोल दायरा/लड़की/थिरकती हुई/लड़की/आरकेस्ट्रा/मेरी नजरें/लड़की/नाचती हुई/कपड़े/लड़की बिना कपड़े/लड़की/कपड़े/खोलती हुई/लड़की।
      लघुकथा में नरेटिव (विवरणात्मक) शैली का काफी प्रयोग हुआ है मगर इस शैली में लिखी गई रचनाएं अक्सर लचर पाई गई लोककथाओं में इस शैली का  विशेष उपयोग होता है। लेकिन लोककथाओं की  रोचकता एवं उत्सुकता तत्व ने  पाठकों पर अपनी पकड़ बनाए रखी   । जबकि विवरणात्मक लघुकथाओं ने  पाठकों पर अपनी पकड़ बनाने की क्षमता खो दी
      घटना और स्थितियों के स्थूल वर्णन का लघुकथा में स्थान नहीं होता ऐसे में सांकेतिकता और व्यंजनात्मकता के सहारे रचना की सृष्टि कर लेना लेखक के लिए उपलब्धि है । लेकिन कई बार इनके बिना भी सपाट बयानी में सशक्त अभिव्यक्ति देना रचनाकार के लिए संभव  है। जैसे प्रभासिंह की सत्याग्रही”” मोहन राजेश की परिष्कृत, व कृष्ण कमलेश की यकीन, आज की लघुकथा दुराव - छुपाव का अवसर न देकर पाठक के आमने सामने होती है और सड़ी गली व्यवस्था पर सीधे चोट करती है। ऐसी रचनाएं तीखे कथ्य और दो टूक भाषा की अपेक्षा करती है।
कथा तत्वों से विहीन होते हुए भी कुछ रचनाएं विचार के स्तर पर रूपायित होती है वे मात्र एक रचना प्रक्रिया होती है जो विवेक पूर्ण एवं स्थिति सापेक्ष होती है । इसमें ठोस कथा की जगह मात्र कथा सूत्र होते हैं। लेखक की टूल कछुए ऐसी ही विचार कथाएं है!
रूपक कथाओं में दो समान्तर कथाएं चलती हैं एक प्रत्यक्ष और दूसरी अप्रत्यक्ष (सूक्ष्म) जैसे डिसीप्लीन - पुरूषोत्तम चक्रवर्ती  प्रतिबंध - शंकुतला किरण,भूख - जगदीश कश्यप आदि
प्रतीकों का प्रयोग लघुकथा लेखन में काफी हुआ है। कईं रचनाएं  जो प्रतीकात्मक होती है वहां कथ्य के अमूर्तिकरण के कारण संप्रेषणीयता कुछ हद तक बाधित हो जाती है फिर भी लेखक कभी - कभी अपने कथ्य को प्रभावी बनाने में प्रतीक की विवशता महसूस करता है। आज के दर्दनाक यर्थाथ और उनसे जूझते इन्सानों के संघर्ष  पलायन और प्रतिक्रियाओं का लेखा- जोखा प्रस्तुत करने में प्रतीक बहुत सहायक होते है प्रतीकों के अभाव में ये रचनाएं अनावश्यक लम्बी होकर उबाऊ एवं प्रभावहीन हो जाएगी रमेश जैन की मकान ब्रजेश्वरमदान की मरे हुए पैर  अनिल चौरसिया की कालासूरज आदि।
फैंटेसी का प्रयोग अक्सर प्रतीकों के साथ होता है लेकिन लघुकथा अपने आंतरिक बुनावट में फैंटेसी का उपयोग करती है। अपनी विचित्र स्थितियों के बावजूद वे यथार्थ का अवलोकन है रमेश बतरा की खोया हुआ आदमी, भगीरथ की दोजख और जगदीश कश्यप की चादर।

जो सबसे ज्यादा प्रचलित रचना विधान दो विपरित परिस्थितियों को आमने - सामने कर देना, विरोधाभासों और विडम्बनाओं को कथा में उतार देना इस शैली कि सैकड़ों रचनाएं लघुकथा साहित्य में मिल जायेगी । यह शैली इतनी रूढ़ हो गई हैं कि अब उसका उपयोग कम ही होता है फिर नये लेखकों द्वारा इसका सार्थक प्रयोग होता है । सतीश दुबे की रचना संस्कार कमल चोपड़ा की जीव हिंसा आदि इस शैली अच्छी रचनाएं है।


Thursday, January 29, 2015

Thursday, October 23, 2014

'पड़ाव व पड़ताल' का खण्ड चार


 'पड़ाव व पड़ताल' का खण्ड चार 

 'पड़ाव व पड़ताल' का खण्ड चार दिशा प्रकाशन ,दिल्ली से प्रकाशित हो गया है इस खण्ड का संपादन भगीरथ ने किया है इसमें लघुकथा लेखक
अशोक भाटिया ,पृथ्वीराज अरोड़ा ,माधव नागदा ,मोहनराजेश ,श्यामसुन्दर अग्रवाल व सुभाष नीरव की लघुकथाओं पर चर्चा की गई है। चर्चाकार
क्रमशः बी एल आच्छा ,रूपदेवगुण ,योगेन्द्र नाथ शुक्ल ,मलय पानेरी , श्याम सुन्दर दीप्ति व बलराम अग्रवाल है उमेश महादोषी का महत्वपूर्ण
लेख 'स्थापना चरण से आगे लघुकथा विमर्श 'और सूर्यकांत नागर का सभी लघुकथा लेखकों की इस खण्ड में संकलित लघुकथाओं पर अपनी
समीक्षा प्रस्तुत की है। जगदीश कश्यप का लेख 'हिंदी लघुकथा :ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ' भी सम्मिलित कर यह  पुस्तक और भी मूल्यवान
हो गई है। अब ये पाठकों के हाथों में है असली मूल्यांकन तो पाठक  ही करता है। इस  श्रृंखला का के संयोजक मधुदीप है जिन्होंने कम से कम
२० खंड की योजना पूरी कर ली है और सात खंड प्रकाशित हो चुके है इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए वे बधाई के पात्र है 

Thursday, July 3, 2014

उर्दु में डाँ शुक्ल की लघुकथाएं





हिन्दी - उर्दु गंगा जमुनी भाषा की सेतु डाँ शुक्ल की लघुकथाएं

इन्दौर ! 22 जून 2014जून ! "मंत्र छोटा होता है परन्तु विश्वास के साथ फ़ल देता है डा योगेन्द्रनाथ शुक्ल की लघुकथाएं भी ऐसी होती है जो आकार में छोटी है लेकिन उनमें राष्ट्र, समाज और मानव आरोह - अवरोह के साथ चित्रित हुए है ! ये लघुकथाएं हिन्दी - उर्दू गंगा जमुनी की सेतु बन गयी है !" उक्त उदगार राष्ट्रीय कवि श्री सत्यनारायण सत्तन ने डा हदीस अंसारी (एसोसिएट प्रोफ़ेसर , मोहनलाल सुखाडिया विश्व उदयपुर) द्वारा उर्दु में अनुदित डा शुक्ल की 121 लघुकथाओं की किताब 'बदलते पैमाने' के विमोचन के अवसर पर व्यक्त किये! आय के महाविद्यालय के हिन्दी और उर्दू विभाग के सयुंक्त तत्वावधान में हुए इस कार्यक्रम में अध्यक्ष के रूप में महत्मा गांधी विश्व चित्रकूट के भू पू कुलपति डा नरेन्द्र वीरमानी ने कहा कि भाषाई एकता के लिए अनुवाद एक महत भूमिका निभाता है ! डा शुक्ल की लघुकथाएं राष्ट्र की जडो से जुडी हुई है ! वह पाठक को संस्कारित करती है ! उन्हें राष्ट्र की मिट्टी से जोड़ती है! विशिष्ट अतिथि के रूप में देवी अहिल्या विशो- के भू पू कुलपति प्रो ए ए अब्बासी ने अनुवाद की प्रशसा करते हुए कहा कि डा शुक्ल समाज की नब्ज पर हाथ रखे हुए है और इस तरह वे लेखकीय पैमाने पर खरे उतरते है ! उनका व्यंग्य लघुकथा की मारक क्षमता को और अधिक बडा देता है ! आय के सोसायटी के सचिव प्रो मोहम्मद हलिम खान ने कहा कि डा हदिस अंसारी ने हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के पाठकों को जोड्ने का जो भागीरथी प्रयास किया है, वह प्रंशसनीय है ड्क शुक्ल ने सभी के प्रति क्रतग्यता ग्यापित करते हुए 'कद' , 'बडे गिध्ध' , इर्ष्या' और बद्लते पैमाने' लघुकथाएं सुनायी, जिनका उर्दू अनुवाद डा हदीस अंसारी ने प्रस्तुत किया ! कार्यक्रम की शुरुआत सूफी संत रफीद खान ने कुरआन जू आयते सुनाकर की ! प्रो आयशा अजीज ने ख्यात साहित्यकार डा सादिद की भूमिका का वाचन किया तथा वरिष्ठ शायर श्री रशीद इन्दौरी ने किताब पर अपने विचार व्यक्त किये! अत्तिथियों का स्वागत डा ए ए खान , प्रो जाकिर हुसैन 'जाकिर' प्रो बी के राठी ने किया ! हिन्दी परिवार और हिन्दी साहित्य समिति द्वारा लेखक द्वय का स्वागत सदाशिव कौतुक, प्रदीप नवीन , अरविन्द ओझा ने किया ! आयोजन में वरिष्ठ साहित्यकार सुर्यकान्त नागर , राशिद शादानी , जवाहर चौधरी , डा पुरुषोत्तम दुबे , डा अर्चना जोशी , प्रतापसिंह सोडी , रमेशचन्द पडित , सुरेश शर्मा , वेद हिमांशु , अजीज अंसारी , सूफी मोहसिन , नसीर , इन्दौरी  पदमा राजेन्द्र , फरियाद बहादुर के साथ - साथ इन्दौर क्रिशिचन महाविद्यालय , निर्भय सिंह पटेल विज्ञान महाविद्यालय , होलकर महाविद्यालय , अटल बिहारी वाजपेयी महाविद्यालय , माता जीजाबाई स्नात्कोत्तर महाविद्यालय के अनेक प्राध्यापक मौजूद थे ! कार्यक्रम का संचालन हरेराम वाजपेयी ने तथा आभार आय के महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो एम के झवर ने माना !

Sunday, March 23, 2014

आलोक कुमार सातपुते की कथाए



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Tuesday, October 29, 2013

फेस बुक की एक पोस्ट



फेस बुक की एक पोस्ट
भगीरथ

फेसबुक की न्यूजफ़ीड पर एक फ़्रेंड  ने एक युवती का फोटो पोस्ट किया। जींस और टांप पहने,
एक हाथ में सुलगती सिगरेट और दूसरे हाथ में थमी बोतल ओठों से लगाकर सुरापान कर ती हुई।कुछ ही मिनटों मे 312बार लाइक बटन दब गया,पचास लोगों ने शेयर किया चालीस लोगों ने कमेंट किया।कमेंट सभी पुरुष मित्रों के थे। कमेंट कुछ इस प्रकार थे-
-नाइस पिक्चर
-वाह! क्या बात है
-नौटी गर्ल
-दो घुंट पिला दे साकिया
-क्या मस्त लौंडिया है!
-बिंदास बिल्लोरानी
-पी पी के बोतल खतम कर दित्ति
-खाली हो गई अब रख दे
-दो घूंट जिन्दगी की
-नाईस बट्स
-अब हमें भी साथ लेलो डार्लिंग
-मेरे नाल भी तो थोडी पी लो
-कौन है यह कमीनी
-ओ भेन दी---देसी दारू दा मोटा पेग और नाले सुट्टे
-वाह मेरे उस्ताद बेवडे
-एक घूंट तो बचा दे कम से कम
-गुड जौब एंजोय एवरी मोमेंट ओफ़ लाइफ
-जिंदगी ना मिलेगी दोबारा,पीओ पिलाओ लाइफ बनाओ, कैरी औन बेबी
-गो अहेड ओफ बोइज
-किसके गम में पीना शुरू किया
-मैं हूं ना, गम दी कोई लोड नहीं, लव यू बेबी
-अरे मामू क्यों बना रही है,बोतल खाली है
-खाली क्यों भरी हुई पियो
-इस तरह की लडकियों ने सारी लडकियों का नाम खराब कर दिया है
-भारतीय संस्कृति और परिवार का क्या बनेगा कीमा या भुर्ता
-जहां मिले मुंह काला करो
-यार एक पेग मेरे लिये भी
-हम भी जोईन कर लें
-अकेले अकेले डार्लिंग हम भी तो है
-ज्यादा ना पी।धुम्रपान करना गलत बात है
-देखो लडकियों सुधर जाओ
-अकेले अकेले पी रहे हो मेरे साथ भी पिओ कभी
-बीवेयर ओफ सच गर्ल्स
-सुधर जा बेवडी
-मेरी गोदी मे आ जाओ डार्लिंग फिर पिओ पिलाओ
-चलो चांद के पार चलो
-खतरनाक लडकियां
  आखिर में फोटो पेस्ट करने वाली दोस्त का मोटे अक्षरों में कमेंट था-
-दारू पीती और सुट्टे लगाती लडकी क्या सडक पर पडा माल है जो उठा लोगे ,और उससे मनचाहा व्यवहार करोगे। हमें सुधारोगे ?पहले तुम लोग सुधर जाओ।