पृथ्वीराज अरोड़ा स्मृति शेष
- उनकी याद में उनकी बेहतरीन लघुकथाएँ
दया
दसवीं क्लास का हिंदी का अध्यापक ,जो अपने सादे रहन –सहन,उच्च आचरण और
दयाभाव के
लिए स्कूल भर में विख्यात था,नई क्लास को सम्बोधित कर रहा
था, “जीवन में सादे रहन सहन
और उच्च-आचरण से दयाभाव का महत्व कहीं ज्यादा है। असल में जिसमे दयाभाव नहीं
है,वह
आदमी कहलाने का हकदार नहीं है।
राजकुमार गौतम एक दिन घूमते हुए दूर तक निकल गए।एक जगह एक
मछुआरा मछलियों को
जाल में फांसकरकिनारे पर रखे बर्तन में फेंक रहा था। राजकुमार कुछ पल मछुआरे द्वारा पकडी
गई मछलियों को,जो पानी में
तडपरही थी,देखते रहे,फिर मछुआरे से पूछा,
“इन मछ्लियों का क्या
करोगे ?”
मछुआरे ने जवाब दिया, ‘बाज़ार में बेचूंगा ।“
“कितने
रुपये की बिक जाएगी ?”
“यही
कोई चार पांच रुपये की।“
राजकुमार ने अपनी सोने की अंगूठी मछुआरे को देकर सारी मछलियां
ले ली और उन्हें दोबारा
पानी में फेंक
दिया । राजकुमार के दयाभाव से हमें सीख लेनी चाहिये ।
रक्षा
लक्ष्मी बहन, मैं
रक्षाबंधन के त्यौहार पर तुम्हारे पास नही पहुँच सका जबकि हर वर्ष पहुँचता था।
तुम्हें तकलीफ हुई होगी, मैं भली भांति समझता हूं। हमारे रीति
रिवाज हमारी संस्कृति के अंग हैं
और हम इन्हें बिना किसी संकोच के साथ निभाते आ
रहे हैं।
बहन,
मैने पिछले वर्ष ही
पढाई छोडी हैं।मैं एक विद्यार्थी- भर ही रहा। मैं तुमसे राखी
बंधवाता रहा और
तुम्हारी रक्षा की जिम्मेदारी को दोहराता रहा। माँ- बाप द्वारा दिये गए उपहार तुम
तक पहुँचाता रहा । पढाई खत्म होने के बाद मैने नौकरी की तलाश मे भटकना शुरू े कर
दिया।
एक रोजगार प्राप्त अपने सहपाठी के साथ रहा हूँ। माँ- बाप को झूठ-मूठ की
तसल्ली देता रहा हूँ।
कि नौकरी तो मिल गई है परन्तु तन्ख्वाह थोडी हैं और अपना
गुजर मुश्किल से कर रहा हूँ। अतः
फिलहाल कुछ भेज नही पाऊंगा। असल मे नौकरी मिलने
की संभावना दूर-दूर तक नही हैं।घर की
स्थिति के बारे में तुम जानती ही हो काम
धन्धे के लिए माँ-बाप के पास रुपये नही हैं। हालांकि
मुझे व्यवसाय करने में कोई
संकोच नही हैं।
मेरी
प्यारी बहना तुम्हें आरक्षण कोटे में नौकरी मिल गई थी। जीजा जी भी नौकरी
में
हैं।दोनो अच्छा कमा लेते हो। हां, जो मैं
कहने जा रहा हूँ।वह कुछ अटपटा लग सकता हैं।हमारी
परम्परा में जहां तक में समझता
हूँ, बहन की रक्षा की बात तब उठी होगी,
जब वह किसी ना
किसी रूप में आश्रित रही होगी पर,
आज तो नहीं।आज के युग में रक्षा को केवल शारीरिक क्षमता
से
नही जोडा जाता । पैसे के बल पर सब कुछ संभव हैं, है न बहन
। या तो सरकार पहले पुरूषो
को रोजगार दे या फिर धर्म-गुरू रक्षा के दायित्व को उठा
सकने वाले पर डाल दें।
बहन,
मुझे तुम्हारे पत्र का इंतजार रहेगा। परन्तु जल्दी नही हैं।
तुम जीजा जी से , अपने
संस्थान के सहयोगियो से , किसी
पत्र/पत्रिका के सम्पादक से,किसी राज नेता से ,
किसी धर्म गुरू
से मशविरा करके बताना- क्या यह संभव हो सकेगा?
तुम्हारा
भाई- निर्विभव
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