Wednesday, March 7, 2012

परावर्तन

परावर्तन
रमेश जैन

अब नहीं पसीजता मन
किसी के रोने पर
क्यों मुट्ठियां नहीं कसती
किसी पर होता अत्याचार देखकर
क्यों नहीं किटकिटाते दांत
पीठ पर बरसते कोडे देखकर
क्यों गुस्सा नहीं आता
किसी के तिलमिलाने पर

जब मैं पीछे मुडकर
असमीपस्थ काली दुर्गम घाटी देखता हूं
तब मुझे सहसा/बीता हुआ याद आता है
मैं 'मैं' नहीं/कोई अन्य था वहां
जिसे देखते ही कंदरा से किरणें फूट पडती थी
आज जब खुरदरे हाथों से
अपने झुर्रीदार चेहरे  को छू भर देने से
सिरहन हो उठती है
और मैं टूटे पत्ते की तरह खड्खडा कर
गहन गह्वर में जा गिरता हूं
तब मुझे लगता है
मैं जीवन का अनन्तर वनवास भुगतता
हृदय की निष्ठुरता ढोता
इस पडाव पर ठहर सा गया हूं
अपराधिनी हताशा/आजीवन कारावास भोगती
बिलखती आज खडी हुई है
और मुझे झकझोरती/अतीत की याद दिलाती
चुपचाप आगे बढ जाने का
संकेत चिन्ह दिखाती चीख रही है
मुझ में आया यह बदलाव
ॠतुओं का परावर्तन तो नहीं !