Monday, September 5, 2011

इस सरकारी दलाली को जानिए

सचिन कुमार जैन

हमारी सरकार जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में 8 और 9 और 10 प्रतिशत की वृद्धि की तान पर अपना राग अलापती रहती है. उनके आलाप का आनंद यह है कि यह वृद्धि हासिल करना बहुत आसान और बहुत खतरनाक एक साथ है. बहुत आसान इसलिए कि जो कुछ भी खरीदा और बेचा जाता है, उसमें धन का लेन-देन होता है. सरकार के खजाने में भी पैसा आता है और माना जाता है कि लोगों की भी उन्नति हुई. जिससे पैसा नहीं आता है, वह जीडीपी के लिए बेकार है.
बात को थोड़ा और साफ़ करते हैं. जंगल, जमीन, पानी, खनिज पदार्थ, पहाड़ यह सब कुछ हमारे संसाधन हैं. जब तक जंगल बचा हुआ है, जीडीपी नहीं बढती है, जब उसे सरकार या कंपनी काटती है, तब धन आता है. जब पानी कल-कल करके बहता रहता है, उसका सरकार के लिए कोई मूल्य नहीं है, पर जब क़ानून बना कर उसके उपयोग पर लोगों का हक सीमित कर दिया जाता है तो संकट बढ़ता है. और फिर उस पर कंपनी को कब्ज़ा देकर भारी कीमत वसूली जाने लगती है तो जीडीपी बढती है.
यदि लोग स्वस्थ रहते हैं तो मोंटेक और मनमोहन सिंह वाला विकास नहीं होता है. जब लोग बीमार पड़ते हैं तब जी.डी.पी बढती है. अब यदि ये वैसा वाला विकास चाहते हैं और उसके लिए काम कर रहे हैं, तो इसका मतलब है कि तो जंगल बचेगा, नदी और पहाड़, खनिज, जमीन और स्वास्थ्य. पिछले 10 वर्षों र्में सरकार ने 10 लाख हेक्टयर जमीन बेची है, अपनी यानी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में बहुत सी हिस्सेदारी बेची है, रेलवे ने अपनी जमीनें बेची हैं. जो जंगल समुदाय की पारंपरिक संपत्ति है, उसके पेड़ और उसका खनिज बेचा है.
कोयले, बाक्साईट, लोहा पत्थर और संगमरमर के लिए जमीनों के खनन की अनुमति दी है, जिससे लाखों हेक्टयर जमीन लम्बे समय के लिए बेकार हो गई. तपेदिक और सिलिकोसिस जैसे बीमारी वहाँ पनपी और हज़ारों की जान लील ली. तब कहीं जाकर हमें 9 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल हो पायी है.
इसी दौरान खेती में यह दर नकारात्मक हो गई, जिसमें सरकार को कोई समस्या नज़र नहीं आती. वह तो कह ही रहे हैं, लोगों को गाँव और खेती से बाहर निकालकर इस क्षेत्र के योगदान को छः प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा है और खेती से जितना योगदान होने भी वाला है, उसमें बड़ी-बड़ी कम्पनियों को आने के लिए दरवाज़े खोल दिए गए हैं. सरकार मानती है कि इससे खेती और किसानों की हालत सुधर जायेगी. खेती को जो नुकसान नीतिगत और सुनियोजित तरीके से पहुंचाया गया है वह बहुत दूर तक अपने प्रभाव दिखाएगा. जरा इन जानकारियों पर नजर डालें
चेन्नई की कम्पनी केविनकरे 109.50 मिलियन डालर का निवेश शीतल पेय और नमकीन निर्माण के लिए कर रही है.
नेस्ले शोध और विकास (खाद्य सामग्री) के लिए मानेसर में 50.49 मिलियन डालर का निवेश कर रही है.
दूध के उत्पादों के निर्माण के लिए ग्लेक्सो स्मिथ क्लिन 64.87 मिलियन डालर का निवेश कर रही है. उल्लेखनीय है कि यही कम्पनी हार्लिक्स बनाती है.
यम! रेस्तारेंट्स इंडिया (जो पिज्जाहट, केएफ़सी, टेकोबेल जैसे रेस्तारेंटस की श्रृंखला चलाती है), वह 100 मिलियन डालर का निवेश करके 2015 तक 1000 रेस्तारेंट्स चालू करने वाली है.
डेल मोंटे और भारती इंटरप्राइसेस के साथ मिलकर फील्ड फ्रेश फूड भी शोध और विकास के लिए होसुर, तमिलनाडु में 25.93 मिलियन डालर का निवेश कर रहे हैं.
खेती के उपकरणों वाली कम्पनी बुह्लेर इंडिया 22.55 मिलियन डालर की लागत से एक निर्माण इकाई लगा रही है, जिसका टर्न ओवर 2014 में 225.49 मिलियन डालर होगा. इतना भयंकर लाभ कहाँ से और किनसे कमाया जाने वाला है !
पेप्सी अगले दो सालों में खाने-पीने के व्यापार पर 500 मिलियन डालर का निवेश करने वाली है.
कोका कोला कर्नाटक में 120.75 मिलियन डालर की लागत से एक बॉटलिंग इकाई लगा रही है.
कृषि व्यवस्था में कारपोरेट निवेश के ये केवल 8 उदाहरण हैं, जो 971.54 मिलियन डालर यानी 45.72 अरब रूपए का निवेश अगले दो सालों में करने वाले हैं. यह निवेश किसानों, फुटकर व्यापारियों और गाँव की अर्थव्यवस्था को और गहरा नुकसान पंहुचाने का काम करेगा और अगर सरकार की बात की जाए तो सुनिए, सरकार इन कंपनियों को मदद करने के लिए अनुबंध की खेती को बढ़ावा देने और इस क्षेत्र (खाद्य प्रसंस्करण) को करमुक्त क्षेत्र बना चुकी है. सरकार की 30 बड़े फूड पार्क बनाने की योजना है, ये एक तरह के विशेष खाद्य प्रक्षेत्र होंगे. अब हमारे देश की जीडीपी और बढने वाली है!
जो कंपनिया खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में निवेश कर रही हैं, उन्हें शुरू के 5 सालों तक आयकर 100 प्रतिशत और फिर अगले 5 सालों तक 25 प्रतिशत छूट का प्रावधान किया जा चुका है. डिब्बाबंद खाने के सामान पर एक्साईस ड्यूटी 16 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत कर दी गयी है. अर्नेस्ट एंड यंग की रिपोर्ट फ्लेवर्स ऑफ इनक्रेडिबल इंडिया के मुताबिक़ भारत में खाने का बाज़ार 2015 में 181 बिलियन डालर और वर्ष 2020 में 318 बिलियन डालर होगा, जिसका ज्यादातर हिस्सा संगठित क्षेत्र यानी बड़ी कंपनियों के नियंत्रण में होगा. जरा यह भी जानें कि पिछले 15 वर्षों र्में भारत के शहरों-गाँव में नमकीन बनाने वाली 13 हज़ार छोटी इकाइयां बंद हो चुकी हैं.

1990
के दशक में जब आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू की गई थी तब खेती के लिये लगभग 220 हजार करोड़ रूपये की सरकारी रियायत होती थी. पिछले 20 वर्षों का बदलाव यह है कि वर्ष 2011 में भारत सरकार ने किसानों के लिये सब्सिडी 100 हजार करोड़ रूपये से कम कर दी और इस वर्ष किसानों के लिए 375 हजार करोड़ रूपये कर्ज देने का प्रावधान किया है. सरकार यह मानने के लिये तैयार नहीं है कि किसानों के लिये कृषि सब्सिडी उपभोक्ताओं के लिये भी जरूरी है. इसी से किसानों को खेती करने के लिये प्रोत्साहन मिलेगा, उत्पादन की लागत कम रहेगी और उपभोक्ताओं को उचित कीमत पर मूलभूत जरूरतों के कृषि उत्पाद मिल सकेंगे.
इसका असर हम साफ देख सकते हैं, खेती की लागत बढ़ाना, किसानों पर कर्ज बढ़ाना और अब बेकाबू मंहगाई. उत्पादन करने वाला आत्महत्या कर रहा है और उपभोक्ता भुखमरी का शिकार है. ऐसे में हमारे वाणिज्यिक मंत्री कमलनाथ ने कहा कि अनाज कम इसलिये पड़ रहा है क्योंकि भारत के लोग ज्यादा खाने लगे हैं, कृषि मंत्री (जिनकी रूचि अपने काम से ज्यादा क्रिकेट के खेल में है) शरद पवार ने कहा मंहगाई कम करना हमारी जिम्मेदारी नहीं है, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी कहते हैं कि मंहगाई कम करना हमारे हाथ में नहीं है और प्रधानमंत्री ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय हमें सरकारी गोदामों में भरे करोड़ों टन अनाज को गरीबों में बांटने को कहे, यह एक नीतिगत मसला है. प्रधानमंत्री की बात को दूसरे शब्दों में कहें तो इससे व्यापार कर रही कम्पनियों को नुकसान होगा और सरकार यह नहीं चाहती है.
भोजन और उससे जुड़े उत्पादनों के बाज़ार पर एकाधिकार करने के मकसद से शोध, प्रशिक्षण, उत्पादन और विपणन के साथ-साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों (हिंदुस्तान यूनीलीवर, पेप्सिको, कोका कोला, आईटीसी, नेस्ले, ब्रिटानिया आदि) के अधिकारियों-कर्मचारियों को राष्ट्रीय खाद्य नियामक इकाई (भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकारी) के 8 वैज्ञानिक पेनल पर नियुक्त कर दिया गया है. यही पेनल खाद्य पदार्थों र्और भोजन में पोषण, कीटनाशक अवयव, विज्ञापनों में किये जाने वाले दावों पर नज़र रखने और नियम बनाने की जिम्मेदारी निभाता है.
अब आप सोचिये कि क्या भारत सरकार के इतने महत्वपूर्ण और संवेदनशील पेनल केवल कंपनियों के हितों की रक्षा करने का काम नहीं करेंगे. और सवाल यह कि सरकार बाज़ार की इन ताकतों को नियमन और निगरानी की आधिकारिक जिम्मेदारी कैसे दे देती है?



1 comment:

  1. आँखें खोलने वाला आलेख है. कार्पोरेट और सरकारी लूट-खसोट के इस खेल की पोल खोलने और इसके खिलाफ खड़ा करने के लिए जनता के बीच ऐसे ही ढोल पीटने की जरूरत है.

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