Wednesday, July 27, 2011

थोर

थोर
                पहाड़ी चट~टानो के बीच
                उगी लम्बी देहवाली
                थोर
                अभावों के बीच पली
                कुरूप, कांटो भरी
                किंतु ,हरित देह की
                संवेदनशीलता
                कितनी गहन है
                खरोंच भर से ही
       दूध की तरह उफन कर
                बह निकलती है।

Sunday, July 10, 2011

शक्ति पुरूष

भगीरथ की कविता
      जब लबों को बींध दिया जाय
या जबानें काट दी जाये
तब भी जीजीविषा  जिन्दा होती है
चेतना तो फिर लपलपाती है
डसे कुन्द होने से बचा सकते थे
लेकिन नहीं,
तुमने जबानें खुद काट ली है
घर के चाकू से
जो इतना मजबूत और ताकतवर
नजर आता है
कहीं पेपर टाइगर तो नहीं है?
जरा उसके खोल को उंचा करके तो देखो
इतिहास साक्षी है
इसने दो मजदूरों जितनी भी ताकत नहीं है
हमारी चेतना/हमारी कुंडलिनी
जाग्रत हो चुकी है
हमें तुम्हारी चमड़ी छील सुरक्षाएं नहीं चाहिए
इस बार/ हमें मंजूर है
तुम्हारे सुरक्षित बंदीग्रह
जिनके दरवाजों /बुर्जो पर तैनात है
सुंगीनधारी सैनिक
तुमने अपने ऐजेन्टो को
पंचायतों / विद्यालयों /मजदूर संघो
यहॉं तक कि हमारे घरों में छोड  रखा है
जो तुम्हारे खनकते इशारों पर
बलवा /अराजकता या चुनावी राजनीति में
।तुम्हारी जीत निश्चित करने के लिए
कटिबंध है/प्रतिबद्ध है
और तुम कहते रहे हो/इनकी ओर इंगित कर
कि ये वे ही शक्त्तियां है/जो लोकतंत्र की जडों को
कुतर रही है/या/प्रतिक्रिया वाद एंव दक्षिणापंथ